घर की धड़कन, समाज की रीढ़: फिर भी अदृश्य क्यों?

-: गृहिणी :-

बचपन से हम सुनते आए हैं कि “घर संभालना आसान नहीं।” यह वाक्य प्रशंसा-सा लगता है, लेकिन वास्तव में यह गृहिणी के अथक श्रम को सामान्य और अदृश्य बनाकर उसकी गरिमा को कम करता है। समाज में गृहिणी का परिश्रम आज भी उपेक्षित है, मानो वह कोई “काम” ही न हो। सुबह की पहली चाय से लेकर रात के खाने तक, बच्चों की देखभाल से लेकर घर की साफ-सफाई तक, गृहिणी का हर कदम परिवार की नींव को अटूट बनाता है। फिर भी, उसे न आर्थिक मूल्यांकन मिलता है, न सामाजिक सम्मान। यह विरोधाभास न केवल गृहिणी के आत्मसम्मान को चोट पहुँचाता है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक संरचनाओं की गहरी खामियों को भी उजागर करता है।

गृहिणी का श्रम एक अनवरत, बहुआयामी यात्रा है। वह सुबह सबसे पहले उठकर परिवार के लिए भोजन तैयार करती है, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करती है, बुजुर्गों की देखभाल करती है, घर को चमकाती है, कपड़ों की धुलाई से लेकर राशन का हिसाब तक संभालती है, और सामाजिक रिश्तों को सहेजती है।

इसके साथ ही, वह परिवार के भावनात्मक संतुलन की धुरी बनती है, जो किसी भी घर का आधार है। यदि इन कार्यों को पेशेवरों—जैसे शेफ, हाउसकीपर, चाइल्डकेयर विशेषज्ञ, या रिलेशनशिप मैनेजर—द्वारा किया जाए, तो इसके लिए लाखों रुपये खर्च होंगे। ऑक्सफैम की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, अवैतनिक घरेलू और देखभाल कार्य वैश्विक अर्थव्यवस्था में 10.8 ट्रिलियन डॉलर का योगदान देता है। भारत में यह जीडीपी का 15-25% तक हो सकता है। फिर भी, यह श्रम “अदृश्य” क्यों रहता है?

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इस अदृश्यता का मूल कारण समाज का वह दृष्टिकोण है, जो केवल “पैसा कमाने” वाले कार्य को ही महत्व देता है। गृहिणी का श्रम, जो परिवार की बुनियाद ढालता है, उसे “स्वाभाविक” मान लिया जाता है। पुरुष की कमाई को प्रतिष्ठा का आधार बनाया जाता है, पर यह भुला दिया जाता है कि उसकी सफलता के पीछे गृहिणी का अथक परिश्रम है। बिना उसके, न पुरुष समय पर दफ्तर जा सकता है, न बच्चे स्कूल, और न ही घर सुचारु रूप से चल सकता है। गृहिणी घर की धुरी है, फिर भी उसे न आर्थिक मान्यता मिलती है, न निर्णय लेने की स्वतंत्रता।

यह उपेक्षा केवल आर्थिक नहीं, बल्कि भावनात्मक और सामाजिक भी है। “तुम तो बस घर पर रहती हो” जैसे ताने गृहिणी के आत्मविश्वास को तोड़ते हैं। सामाजिक तौर पर भी, उसे कमतर समझा जाता है, क्योंकि वह “कमाने वाली” नहीं है। “वर्किंग वूमन” जैसे शब्दों का उपयोग इस तरह होता है, मानो गृहिणी का श्रम “काम” ही नहीं। यह दृष्टिकोण न केवल अन्यायपूर्ण है, बल्कि लैंगिक असमानता को और गहराता है। गृहिणी के श्रम को सम्मान और मान्यता देना न केवल सामाजिक न्याय की मांग है, बल्कि एक समृद्ध और समावेशी समाज की नींव भी है।

गृहिणी के श्रम की अदृश्यता का प्रभाव केवल वर्तमान तक सीमित नहीं, बल्कि यह भावी पीढ़ियों को भी आकार देता है। बच्चियाँ अपनी माँ को देखकर यह मान लेती हैं कि घर की जिम्मेदारी उनकी ही है, जबकि लड़के यह सीखते हैं कि उनकी भूमिका केवल बाहर की कमाई तक सीमित है। इस तरह, लैंगिक असमानताएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी गहरी होती जाती हैं। इस चक्र को तोड़ने के लिए घरेलू श्रम को साझा जिम्मेदारी बनाना होगा। पुरुषों को घर के कामों में बराबर की हिस्सेदारी निभानी होगी। यह बदलाव न केवल गृहिणी के बोझ को हल्का करेगा, बल्कि समाज में समानता की मजबूत नींव भी रखेगा।

नीतिगत स्तर पर इस मुद्दे को गंभीरता से लेना अनिवार्य है। भारत के सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में एक फैसले में कहा था कि गृहिणी का श्रम अनमोल है और इसे आर्थिक मूल्यांकन की जरूरत है। फिर भी, इस दिशा में ठोस नीतियाँ लागू नहीं हुईं। कनाडा और स्वीडन जैसे देशों में अवैतनिक घरेलू श्रम को मान्यता देने और गृहिणियों के लिए पेंशन या सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर काम हुआ है। भारत में भी ऐसी पहल की जरूरत है। उदाहरण के लिए, गृहिणियों के लिए पेंशन, स्वास्थ्य बीमा, या अन्य सामाजिक योजनाएँ उनके श्रम को सम्मान देने का प्रभावी कदम हो सकती हैं।

गृहिणी की आत्म-छवि भी इस बदलाव का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। जब तक वह अपने श्रम को मूल्यवान और सम्मानजनक नहीं मानेगी, समाज भी उसे गंभीरता से नहीं लेगा। गृहिणी को यह समझना होगा कि उसका योगदान परिवार और समाज के लिए अपरिहार्य है। उसे अपने कार्य पर गर्व करना होगा और परिवार को भी इसका महत्व बताना होगा। यह तभी संभव है जब समाज में जागरूकता फैले और गृहिणी के श्रम को “काम” के रूप में स्वीकार किया जाए।

इसके लिए गहरे सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव की जरूरत है। स्कूलों में बच्चों को लैंगिक समानता और घरेलू श्रम के महत्व की शिक्षा देनी होगी। मीडिया को गृहिणी के योगदान को सकारात्मक और प्रेरक रूप में प्रस्तुत करना चाहिए। परिवारों को यह समझना होगा कि गृहिणी का श्रम केवल शारीरिक मेहनत नहीं, बल्कि भावनात्मक और मानसिक निवेश भी है। वह न केवल घर को व्यवस्थित रखती है, बल्कि रिश्तों को पोषित करती है, परिवार को जोड़ती है और एक सुरक्षित, प्यार भरा माहौल बनाती है।

आर्थिक मान्यता के साथ-साथ सामाजिक सम्मान भी उतना ही जरूरी है। गृहिणी का श्रम तब तक अदृश्य रहेगा, जब तक समाज इसे “काम” के रूप में स्वीकार नहीं करता। हमें यह मानना होगा कि घर का काम उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कोई पेशेवर कार्य। यह केवल खाना पकाने या सफाई तक सीमित नहीं, बल्कि समाज की नींव को मजबूत करने वाला आधार है।

गृहिणी के श्रम को दृश्यमान बनाने के लिए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाना होगा, जिसमें नीतिगत सुधार, सामाजिक जागरूकता, लैंगिक समानता और व्यक्तिगत सम्मान शामिल हों। जब तक हम गृहिणी के श्रम को उसका उचित स्थान और सम्मान नहीं देंगे, हमारा समाज अधूरा रहेगा। गृहिणी का कार्य न केवल परिवार, बल्कि राष्ट्र की प्रगति का आधार है। इसे नजरअंदाज करना सिर्फ अन्याय नहीं, बल्कि सामाजिक विकास में सबसे बड़ी बाधा है। आइए, हम सब मिलकर इस अनमोल श्रम को वह सम्मान और मान्यता दें, जिसकी वह सच्ची हकदार है।

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